हनुमान अकस्मात् उठ बैठा. उसे यहाँ जानकार कुछ संतोष हुआ की वो आकाश से गिर नही रहा था. वह आसानी से जागने वालों में से नहीं था. कुछ हफ़्तों पहले तक, जब जीवन सामान्य था, उसकी दोपहर की झपकियाँ भी सागर सी गहरी हुआ करती थीं. पर फिर दो वनवासी राजकुमार कहीं से आ गए और रिश्यमुख पर सब कुछ बदल गया.
जबसे वह लंका जाकर लौटा था, कुछ बेचैन सा रहता था. पिछली रात को भी उसकी नींद तब टूट गयी थी जब उसने एक दुस्वप्न में सिंहिका राक्षसी, जिसके साथ उसे लंका के रास्ते पर लड़ना पडा था, को देखा. ऊपर से दूसरी बात यह, की आधी रात को जागने के बाद वह हमेशा स्वयं को खर्राटे मारते वानरों के बीच बैठा एक मूर्ख महसूस करता था.
हनुमान खड़ा हुआ और चारो तरफ सोते वानरों की फैली पूँछों का ख़याल करता हुआ ध्यान से पर्वत के किनारे पर पंहुचा. उसके आगे अथाह सागर छलक रहा था. रात के अँधेरे में रावण की लंका दिख तो नही रही थी पर हनुमान को ज्ञात था की वह द्वीप उसी सीध में कहीं है. उसकी आँखें जैसे जैसे लहरों पर खेलती चन्द्रमा की रुपहली रौशनी की आदी हुईं, वैसे वैसे गत कुछ महीनों के आश्चर्यजनक यादें उसके मन में लौटने लगीं.
सीता की तलाश में भारतवर्ष के अंत तक पहुँचने के बाद उन्हें जटायु के भाई संपाति ने निराशा के घोर अँधेरे से बचाया था. संपाति ने ही हनुमान और उसके मित्रों को सागर पार लंका के विषय में बताया था. तत्पश्चात भल्लुक जाम्बवंत ने हनुमान को उसकी शक्तियां प्रदान की थी. आज, हफ़्तों बाद, हनुमान को यह स्मृति स्वप्न सी प्रतीत हो रही थी. क्या उसने वास्तव में यह सब कर दिखाया था? क्या वह विशाल शक्ति समुद्र सचमुच हमेशा से उसके अन्दर गोते मारता रहा था? या क्या ये सब मात्र जाम्बवंत के जादू का प्रभाव था?
सच माने तो हनुमान को अब भी स्वयं में कोई बदलाव नहीं दिखता था. वो अब भी वही एक अदना सा वानर था जो वह पहले हुआ करता था. उसके अंतर्मन का एक भाग अब भी मानता था की वानर उड़ते नहीं हैं, समुद्र पार छलांग मारके राक्षसों से लड़ना तो दूर की बात है.
हनुमान ने एक गहरी सांस ली और जलती हुई लंका को याद करके हल्का सा हँस दिया. वह एक कार्य तो उसने अवश्य किया था.
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